Friday, March 30, 2007

मीडिया में सब जायज़ है...

संजय श्रीवास्तव
कुछ लिखना है तो लिख दिया। कुछ दिखाना है तो चला दिया। कमोबेश अब यही सच है टेलीविजन पत्रकारिता का। और मजाक मजाक में उल जलूल खबर पर बहस छिड़ गई या खबरिया चैनल की रिपोर्ट हिट हो गयी तो कहना ही क्या। टीआरपी का ही तो खेल है। कुछ ऐसा ही हुआ शेखर कपूर और सुचित्रा सेन की जिन्दगी में प्रीति जिंटा को डाल कर। सच जो भी हो,खबर मसालेदार थी। जाहिर है चलेगी भी,सो गिरते पड़ते कुछ जगह चल भी गई। भले उसे मुंबई के अखबार मीड डे से ही क्यों न उठाया गया हो।एक जगह चली तो दूसरे चैनल की भी नींद टूटी। उसने भी चला दिया..। दिखाने को कुछ नहीं तो लिख कर बताने को तो है ही।
मजे की बात ये है कि इस तरह खबरों को चलाने का ठेका उन्हीं के पास है जो गाहे बगाहे अखबार और पत्रिकाओं में मीडिया और खबरों की दुर्दशा का रोना रोते हैं। आम आदमी को भले ही सुचित्रा और शेखर कपूर की जिन्दगी में प्रीति जिंटा के आने से कोई लेना देना न हो, मीडिया उन्हें जरुर एहसास करा देगा कि वो अब तक इतनी बड़ी खबर से अंजान थे। कुछ दिनों पहले जब प्रीति की बॉम्बे डाइंग के मालिक के बेटे नेस वाडिया से शादी की अफवाह उड़ी तो उसने प्रीति के घर वालों से कही ज्यादा मीडिया जगत को परेशान कर दिया। एक विदेशी मीडिया ने तो यहां तक कह डाला कि अगर प्रीति ज़िंटा नेस से शादी करती हैं तो वे पाकिस्तान के क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना के परिवार से जुड़ जाएंगी। दरअसल,नेस वाडिया मोहम्मद अली ज़िन्ना के परनाती हैं। रिपोर्ट में लिखा था कि प्रीति पहले ही मान चुकी हैं कि वो नेस को पसंद करती हैं और नेस और उनके बीच प्रेम संबंध है। यही नहीं उसमें अंदर तक की खबर थी कि नेस के परिवार में पारसी, ईसाई और इस्लामी परंपराओं का पालन एक साथ होता है। जबकि दूसरी ओर प्रीति सेना के अफ़सर की बेटी हैं,उनके एक भाई भी सेना में हैं। अब सवाल ये है कि हम इसे किस आधार पर खोजी पत्रकारिता कह सकते हैं। किसी के निजी जीवन में दखल को कहा तक जायज़ माना जाए ? या हर वो कदम सही है जिससे समाज का भला हो? इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया के एक बड़े हिस्से का लम्पटीकरण हो गया है, उसका लक्ष्य अपना रेटिंग बढ़ाना भर है। मीडिया विश्लेषक सुधीश पचौरी की उस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं कि जनता की इतनी समस्याएं हैं उन तमाम चीज़ों पर कोई खोजपूर्ण रिपोर्ट लाकर जनता को जागृत करने की जरुरत नहीं समझता है। उसकी जगह कुछ नामचीन लोगों के निजी जीवन में ताकझांक करने से भला क्या होगा।
टीवी के पत्रकार भाईयों को शायद ये बात हजम न हो, वो दलील में ये कह भी सकते है कि कोई ऐसा चैनल बता दीजिए जो अपने टीआरपी को कम करने के लिए काम करता हो,कंपटेटिव मार्केट में रहना है तो जाहि है वही काम करेंगे जो जनता के हित में हो। लेकिन ये भी तो मीडिया को ही सोचना होगा कि आखिर किन वजहों से गंभीर मुद्दों और बड़ी खबरों से हट कर उन्हें ऐसी खबरों को परोसने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

4 comments:

CMS Media Lab said...

टीवी की दशा कैसी है.वो आपके लेख से दिखती है.सोचने की दिशा से शायद दशा सुधरे .पर कौन सोचेगा.

Anonymous said...

आपकी सोच सही है और हमारा भारती मीडिया पूरी तरह आज़ाद है।

Anonymous said...

बिल्कुल सही लिखा है। लेकिन इसके लिए तो मीडिया ही नहीं टेलीविजन की टीआरपी बढ़ाने वाले यानी देखने वाले भी बराबर के जिम्मेदार हैं..जब सब कूड़ा है तो देखते क्यों हैं। देंखेगे ही नहीं तो कब तक ऐसा चलेगा।

Anonymous said...

सही लिखा है..लेकिन ये तभी ठीक होगा जब टेलीविजन देखने वाले भी इस तरफ गंभीर हो, जब तक कुछ भी देख देख कर हम टीआरपी बढ़ाते रहेंगे हमे वहीं देखने को मिलेगा जो खबरिया चैनल दिखाएंगे..
 
कमल गुप्ता